Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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ताहिर अली ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि घीसू ने बाप को देखते ही जोर से छलाँग मारी और एक पत्थर उठाकर ताहिर अली की तरफ फेंका। वह सिर नीचा न कर लें, तो माथा फट जाए। जब तक घीसू दूसरा पत्थर उठाए, उन्होंने लपककर उसका हाथ पकड़ा और इतनी जोर से ऐंठा कि वह 'अहा मरा! अहा मरा!' कहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। अब बजरंगी आपे से बाहर हो गया। झपटकर ऐसी लाठी मारी कि ताहिर अली तिरमिराकर गिर पड़े। कई चमार, जो अब तक इसे लड़कों का झगड़ा समझकर चुपचाप बैठे थे, ताहिर अली को गिरते देखकर दौड़े और बजरंगी को पकड़ लिया। समर-क्षेत्र में सन्नाटा छा गया। हाँ, जैनब और रकिया द्वार पर खड़ी शब्द-बाण चलाती जाती थीं-मूड़ीकाटे ने गजब कर दिया, इस पर खुदा का कहर गिरे, दूसरा दिन देखना नसीब न हो, इसकी मैयत उठे, कोई दौड़कर साहब के पास जाकर क्यों इत्तिला नहीं करता! अरे-अरे चमारो, बैठे मुँह क्या ताकते हो, जाकर साहब को खबर क्यों नहीं देते; कहना-अभी चलिए। साथ लाना, कहना-पुलिस लेते चलिए, यहाँ जान देने नहीं आए हैं।


बजरंगी ने ताहिर अली को गिरते देखा, तो सँभल गया, दूसरा हाथ न चलाया। घीसू का हाथ पकड़ा और घर चला गया। यहाँ घर में कुहराम मचा। दो चमार जॉन सेवक के बँगले की तरफ गए। ताहिर अली को लोगों ने उठाया और चारपाई पर लादकर कमरे में लाए। कंधो पर लाठी पड़ी थी, शायद हड़डी टूट गई थी। अभी तक बेहोश थे। चमारों ने तुरंत हल्दी पीसी और उसे गुड़-चूने में मिलाकर उनके कंधो में लगाया। एक आदमी लपककर पेड़े के पत्तो तोड़ लाया, दो आदमी बैठकर सेंकने लगे। जैनब और रकिया तो ताहिर अली की मरहम-पट्टी करने लगीं, बेचारी कुल्सूम दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। पति की ओर उससे ताका भी न जाता था। गिरने से उनके सिर में चोट आ गई थी। लहू बहकर माथे पर जम गया था। बालों में लटें पड़ गई थीं, मानो किसी चित्रकार के ब्रुश में रंग सूख गया हो। हृदय में शूल उठ रहा था; पर पति के मुख की ओर ताकते ही उसे मूर्छा-सी आने लगती थी, दूर खड़ी थी; यह विचार भी मन में उठ रहा था कि ये सब आदमी अपने दिल में क्या कहते होंगे। इसे पति के प्रति जरा भी प्रेम नहीं, खड़ी तमाशा देख रही है। क्या करूँ, उनका चेहरा न जाने कैसा हो गया है। वही चेहरा, जिसकी कभी बलाएँ ली जाती थीं, मरने के बाद भयावह हो जाता है, उसकी ओर दृष्टिपात करने के लिए कलेजे को मजबूत करना पड़ता है। जीवन की भाँति मृत्यु का भी सबसे विशिष्ट आलोक मुख ही पर पड़ता है। ताहिर अली की दिन-भर सेंक-बाँध हुई, चमारों ने इस तरह दौड़-धूप की, मानो उनका कोई अपना इष्ट मित्र है। क्रियात्मक सहानुभूति ग्राम-निवासियों का विशेष गुण है। रात को भी कई चमार उनके पास बैठे सेंकते-बाँधते रहे! जैनब और रकिया बार-बार कुल्सूम को ताने देतीं-बहन, तुम्हारा दिल भी गजब का है। शौहर का वहाँ बुरा हाल हो रहा है और तुम यहाँ मजे से बैठी हो। हमारे मियाँ के सिर में जरा-सा दर्द होता था, तो हमारी जान नाखून में समा जाती थी। आजकल की औरतों का कलेजा सचमुच पत्थर का होता है। कुल्सूम का हृदय इन बाणों से बिंध जाता था; पर यह कहने का साहस न होता था कि तुम्हीं दोनों क्यों नहीं चली जातीं? आखिर तुम भी तो उन्हीं की कमाई खाती हो, और मुझसे अधिक। किंतु इतना कहती, तो बचकर कहाँ जाती, दोनों उसके गले पड़ जातीं। सारी रात जागती रही। बार-बार द्वार पर जाकर आहट ले आती थी। किसी भाँति रात कटी। प्रात:काल ताहिर अली की आँखें खुलीं; दर्द से अब भी कराह रहे थे; पर अब अवस्था उतनी शोचनीय न थी। तकिये के सहारे बैठ गए। कुल्सूम ने उन्हें चमारों से बातें करते सुना। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनका स्वर कुछ विकृत हो गया है। चमारों ने ज्यों ही उन्हें होश में देखा, समझ गए कि अब हमारी जरूरत नहीं रही, अब घरवाली की सेवा-शुश्रूषा का अवसर आ गया। एक-एक करके विदा हो गए। अब कुल्सूम ने चित्ता सावधान किया और पति के पास आ बैठी। ताहिर अली ने उसे देखा, तो क्षीण स्वर में बोले-खुदा ने हमें नमकहरामी की सजा दी है। जिनके लिए अपने आका का बुरा चेता, वही अपने दुश्मन हो गए।


कुल्सूम-तुम यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते? जब तक जमीन का मुआमला तय न हो जाएगा, एक-न-एक झगड़ा-बखेड़ा रोज होता रहेगा, लोगों से दुश्मनी बढ़ती जाएगी। यहाँ जान थोड़े ही देना है। खुदा ने जैसे इतने दिन रोजी दी है, वैसे ही फिर देगा। जान तो सलामत रहेगी।

ताहिर-जान तो सलामत रहेगी, पर गुजर क्योंकर होगा, कौन इतना दिए देता है? देखती हो कि अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे आदमी मारे-मारे फिरते हैं।

कुल्सूम-न इतना मिलेगा, न सही; इसका आधा तो मिलेगा! दोंनों वक्त न खाएँगे, एक ही वक्त सही; जान तो आफत में न रहेगी।

ताहिर-तुम एक वक्त खाकर खुश रहोगी, घर में और लोग भी तो हैं, उनके दु:खड़े रोज कौन सुनेगा? मुझे अपनी जान से दुश्मनी थोड़े ही है; पर मजबूर हूँ। खुदा को जो मंजूर होगा, वह पेश आएगा।

कुल्सूम-घर के लोगों के पीछे क्या जान दे दोगे?

ताहिर-कैसी बातें करती हो, आखिर वे लोग कोई गैर तो नहीं हैं? अपने ही भाई हैं, अपनी माँएँ हैं। उनकी परवरिश मेरे सिवा और कौन करेगा?

कुल्सूम-तुम समझते होगे, वे तुम्हारे मोहताज हैं; मगर उन्हें तुम्हारी रत्ती-भर भी परवा नहीं। सोचती हैं, जब तक मुफ्त का मिले, अपने खजाने में क्यों हाथ लगाएँ। मेरे बच्चे पैसे-पैसे को तरसते हैं और वहाँ मिठाइयों की हाँड़ियाँ आती हैं, उनके लड़के मजे से खाते हैं। देखती हूँ और आँखें बंद कर लेती हूँ।

ताहिर-मेरा जो फर्ज है, उसे पूरा करता हूँ। अगर उनके पास रुपये हैं, तो इसका मुझे क्यों अफसोस हो, वे शौक से खाएँ, आराम से रहें। तुम्हारी बातों से हसद की बू आती है। खुदा के लिए मुझसे ऐसी बातें न किया करो।

कुल्सूम-पछताओगे; जब समझाती हूँ, मुझ ही पर नाराज होते हो; लेकिन देख लेना, कोई बात न पूछेगा।

ताहिर-यह सब तुम्हारी नियत का कसूर है।

कुल्सूम-हाँ, औरत हूँ, मुझे अक्ल कहाँ! पड़े तो हो, किसी ने झाँका तक नहीं। कलक होती, तो यों चैन से न बैठी रहतीं।

ताहिर अली ने करवट ली, तो कंधो में असह्य वेदना हुई। 'आह-आह' करके चिल्ला उठे। माथे पर पसीना आ गया। कुल्सूम घबराकर बोली-किसी को भेजकर डॉक्टर को क्यों नहीं बुला लेते? कहीं हड़डी पर जरब न आ गया हो।

ताहिर-हाँ, मुझे भी ऐसा ही खौफ होता है, मगर डॉक्टर को बुलाऊँ तो उसकी फीस के रुपये कहाँ से आवेंगे?

कुल्सूम-तनख्वाह तो अभी मिली थी, क्या इतनी जल्द खर्च हो गई?

ताहिर-खर्च तो नहीं हो गई, लेकिन फीस की गुंजाइश नहीं है। अबकी माहिर की तीन महीने की फीस देनी होगी। 12 रुपये तो फीस ही के निकल जाएँगे, सिर्फ 18 रुपये बचेंगे! अभी तो पूरा महीना पड़ा हुआ है। क्या फाके करेंगे?

कुल्सूम-जब देखो, माहिर की फीस का तकाजा सिर पर सवार रहता है। अभी दस दिन हुए, फीस दी नहीं गई?

ताहिर-दस दिन नहीं हुए, एक महीना हो गया।

कुल्सूम-फीस अबकी न दी जाएगी। डॉक्टर की फीस उनकी फीस से जरूरी है। वह पढ़कर रुपये कमाएँगे, तो मेरे घर न भरेंगे। मुझे तो तुम्हारी ही जान का भरोसा है।

ताहिर-(बात बदलकर) इन मुजियों की जब तक अच्छी तरह तंबीह न हो जाएगी, शरारत से बाज न आएँगे।

कुल्सूम-सारी शरारत इसी माहिर की थी। लड़कों में लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता है। यह वहाँ न जाता तो क्यों मुआमला इतना तूल खींचता? इस पर जो अहीर के लौंडे ने जरा दाँत काट लिया, तो तुम भन्ना उठे।

ताहिर-मुझे तो खून के छींटे देखते ही जैसे सिर पर भूत सवार हो गया।

इतने में घीसू की माँ जमुनी आ पहुँची। जैनब ने उसे देखते ही तुरंत बुला लिया और डाँटकर कहा-मालूम होता है, तेरी शामत आ गई है।

जमुनी-बेगम साहब, शामत नहीं आई है, बुरे दिन आए हैं, और क्या कहूँ। मैं कल ही दही बेचकर लौटी, तो यह हाल सुना। सीधो आपकी खिदमत में दौड़ी; पर यहाँ बहुत-से आदमी जमा थे, लाज के मारे लौट गई। आज दही बेचने नहीं गई। बहुत डरते-डरते आई हूँ। जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे माफ कीजिए, नहीं तो उजड़ जाएँगे, कहीं ठिकाना नहीं है।


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